Archive for अक्टूबर 21st, 2009

“…मुझमे तुम कितनी हो..?”


हर आहट, वो सरसराहट लगती है,

जैसे डाल गया हो डाकिया; चिट्ठी

दरवाजे के नीचे से.

अब, हर आहट निराश करती है.

हर महीने टुकड़ों में मिलने आती रही तुम

देती दस्तक सरसराहटों से .


सारी सरसराहटों से पूरी आहट कभी ना बना सके मै.


तुम्हारे शब्दों से बिम्ब उकेरता मै,

तुम्हे देख पाने के लिए…कागज पर कूंची फिराना जरूरी होता जा रहा है.


कूंची जितनी यानी उमर तुम्हारी. तुम शब्दों में, तुम कूंची में. मुझमे तुम कितनी हो..? तुम में मै कहाँ हूँ….?