Archive for नवम्बर, 2009

ताकि.

मैंने देखा ..’बुढ़ापे’ को,

सड़क के एक किनारे दूकान सजाते हुए.

ताकि..

रात को पोते को दबकाकर कहानी सुनाने का ‘मुनाफा’ बटोर सके.

एक ‘बुढ़ापा’ ठेला खींच रहा था..

ताकि..

अंतिम तीन रोटियां परोसती बहू को

थाली सरकाना भार ना लगे.

मैंने समझा; वो ‘बुढ़ापा’ दुआ बेचकर

कांपते हाथों से सिक्के बटोर रहा था ..; क्यों…?

ताकि..

जलते फेफड़ों के एकदम से रुक जाने पर,

बेटा; कफ़न की कंजूसी ना करे…..

तेरा ना होना

 

“…..आज इक बार फिर तेरा ना

होना नागवार गुजरा है.

वीरानी शाम में आशिक हवाओं ने मुझे

बदनाम समझा है.

पुराने जख्म अब पककर,मलहम से हाथ चाहेंगे.

सनम आ जाए महफ़िल में ,दुआं दिन रात मांगेंगे.

अभी इक दर्द का लश्कर सीने के पर उतरा है….

 

कहूँ साजिश सितारों की या फिर बेदर्द वक़्त ही है.

सनम ने ख़ुद मेरे लिए जुदाई की तय सजा की है.

कशमकश हो गई बेदम,हवाओं पर आसमां का पहरा है……….”