रूबरू वो हो तो

लाख सोचें ना हो वो रूबरू यारों,

सोच लेने के भरम में दुनिया यारों.


साथ देते रहे हर लम्हा मुस्काते हुए,

शाम हर रोज गिला करके सो जाती यारों.


मेरी हर साँस फासले कम करने में गयी,

हर सहर, मंजिलें अपनी खो जाती यारों.


जबसे जागा है, सुना है, लोगो को गाते हुए,

रूबरू वो हो तो आवाज खो जाती यारों.


4 responses to this post.

  1. मेरी हर साँस फासले कम करने में गयी,
    हर सहर, मंजिलें अपनी खो जाती यारों.

    बहुत हि सुन्दर पंक्तियाँ…..

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  2. वाह
    अत्यंत उत्तम लेख है
    काफी गहरे भाव छुपे है आपके लेख में
    ………देवेन्द्र खरे

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  3. लाख सोचों ना हो वो रूबरू यारों,
    सोच लेने के भरम में दुनिया यारों.

    साथ देते रहे हर लम्हा मुस्कुराते हुए,
    शाम हर रोज गिला करके सो जाती यारों.

    मेरी हर साँस फासले कम करने में गयी,
    हर सहर, मंजिलें अपनी खो जाती यारों.

    जबसे जागा है, सुना है, लोगो को गाते हुए,
    रूबरू वो हो तो आवाज खो जाती यारों.

    ध्वनि के स्तर पर हल्की सी एकलयता है … एक दो स्थानों पर है.. लेकिन, भाव के स्तर “पर इतनी सुगठित इतनी भरपूर कि क्या कहने… “सोचों के स्थान पर सोचें और वो के स्थान पर वह “… “मुस्कुराते के स्थान पर “मुस्काते ” भी प्रयोग में ला सकते हैं “मंजिलें अपनी खो जाती यारों. से अपनी हटा कर भी देखिये ” यह महज मेरे मशवरे हैं १००% सम्भावना मेरे गलत होने भी है .. हालाँकि उर्दू में वो का ही प्रचलन है लेकिन हम हिंदी वाले अपने तरीके से वो को वह भी लिखते हैं .. लेकिन अपने “प्रखर” का भाव और चिंतन पक्ष किसी को भी (किसी को भी मतलब किसी को भी ) टक्कर देने में सक्षम है … बहुत सुन्दर !

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    • श्याम जी आपके सुझाये परिवर्तन कर दिए हैं. गाते-गुनगुनाते ही इसे लिखा था तो एक लय तो रही है इसमें पर सभी पंक्तियों में यह नही आ पायी है, स्वीकार करता हूँ. मानता हूँ, कविता एक बेहद कठिन विधा है..प्रयत्न कर रहा हूँ समानांतर..! आपको इस ब्लॉग की खबर लग गयी..वाह. ! आपके सुझाव से नित सीखता रहता हूँ मै..कवि बना के छोड़ेंगे मुझे…:)

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